Ticker

6/recent/ticker-posts

Header Ads Widget

प्रथम महिला नेता व शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की जयंती (3 जनवरी) के अवसर पर दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा की ओर से चलाये जा रहे ‘सावित्रीबाई फुले- फ़ातिमा शेख स्मृति सप्ताह” के तहत इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ पर, गोरखपुर, अम्बेडकर नगर और चित्रकूट में कल यानी 3 जनवरी को 'सावित्रीबाई फुले की विरासत’ पर गोष्ठी और ‘जाति तोड़क भोज’ का आयोजन किया गया।

 *सावित्रीबाई फुले की लड़ाई आगे बढ़ाओ!!*

*जाति-धर्म के झगड़े छोड़ो, सही लड़ाई से नाता जोड़ो!*

*शिक्षा है सबका अधिकार! बन्द करो इसका व्यापार!!*



प्रथम महिला नेता व शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की जयंती (3 जनवरी) के अवसर पर दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा की ओर से चलाये जा रहे ‘सावित्रीबाई फुले- फ़ातिमा शेख स्मृति सप्ताह” के तहत इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ पर, गोरखपुर, अम्बेडकर नगर और चित्रकूट में कल यानी 3 जनवरी को 'सावित्रीबाई फुले की विरासत’ पर गोष्ठी और ‘जाति तोड़क भोज’ का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत सावित्रीबाई की प्रतिमा पर माल्यार्पण से हुआ। माल्यार्पण के दौरान  ‘सावित्रीबाई तुम ज़िन्दा हो, हम सब के संकल्पों में’ ‘सावित्रीबाई का सपना आज भी अधूरा, जागेंगे छात्र-युवा उसे करेंगे पूरा’ आदि गगनभेदी नारे लगाये गए और ‘अभी लड़ाई जारी है’ ‘ज़िन्दगी ने एक दिन कहा कि तुम लड़ो’ और आ गये यहाँ जवां कदम ज़िन्दगी को ढूढते हुए’ गीत प्रस्तुत किये।

 सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को सतारा ज़िले के नायगांव में हुआ था। आज से 174 साल पहले पुणे के भिडे वाडा में सावित्री बाई और ज्योतिराव फुले ने लड़कियों के लिए स्कूल खोला था और रुढ़िवादी ताकतों से कड़ी टक्कर ली थी। इस संघर्ष के दौरान उन पर पत्थर, गोबर, मिट्टी तक फेंके गये पर सावित्रीबाई ने फातिमा शेख के साथ मिलकर शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य बिना रूके किया। अपने संघर्ष में इन लोगों ने जातिवाद और आज के समय सामाजिक लड़ाई को कमजोर करने वाली सोच “अस्मितावाद” के खिलाफ भी संघर्ष किया। ज्योतिबाराव फुले ने लिखा कि *जो हमारे संघर्षों में शामिल होता है उसकी जाति नहीं पूछी जानी चाहिए।*

अंग्रेजों ने भारत में जिस औपचारिक शिक्षा की शुरूआत की थी, उसका उद्देश्‍य “शरीर से भारतीय पर मन से अंग्रेज” क्‍लर्क पैदा करना था। इसलिए उन्‍होंने ना तो शिक्षा के व्‍यापक प्रसार पर बल दिया और ना ही तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा पर। ज्‍योतिबा राव और सावित्रीबाई फूले ने सिर्फ शिक्षा के प्रसार पर ही नहीं बल्कि प्राथमिक शिक्षा में ही तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा पर बल दिया। अंधविश्‍वासों के विरूद्ध जनता को शिक्षित किया। आजादी के बाद सत्ता में आयी तमाम चुनावी पार्टियों का रवैया शिक्षा के प्रसार के मामले में उपेक्षित ही रहा है। देश में पहली व्यवस्थित शिक्षा नीति आज़ादी के 21 साल बाद 1968 में बनी। इस दस्तावेज में स्कूली शिक्षा पर जोर केवल कुशल मज़दूर पैदा करने के लिए था। इन दस्तावेजों में एकसमान स्कूल व्यवस्था लागू करने की बात तो कही गयी लेकिन इसके लिए ज़रूरी निजी स्कूलों के तंत्र को ख़त्म करने की जगह निजी स्कूलों के दबदबे को बरकार रखा गया। आज के समय में शिक्षा के सामने पैसों का एक ताला लगा हुआ है। नई शिक्षा नीति के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में गैर बराबरी को बढ़ावा दिया जा रहा है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के पूरे सरकारी तंत्र को चौपट किया जा रहा है। ऐसे दौर में सावित्रीबाई फुले की विरासत को याद करते हुए सबके लिए समान और निशुल्क शिक्षा की लड़ाई को आगे बढ़ाना सभी इंसाफ पसंद छात्रों -युवाओं का कार्यभार है। 


सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी) और फ़ातिमा शेख (9 जनवरी) के जन्मदिवस पर दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा की ओर से उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में चलाये जा रहे ‘सावित्रीबाई फुले-फ़ातिमा शेख स्मृति सप्ताह’ के तहत आज गोरखपुर के ज़ाफ़रा बाज़ार स्थित ‘संस्कृति कुटीर’ में ‘सावित्रीबाई फुले का संघर्ष और विरासत’ विषय पर परिचर्चा और ‘जाति तोड़क भोज’ का आयोजन किया गया.

 आज का जातिवाद वही नहीं है जो सावित्रीबाई के समय में मौजूद था. देश में पूँजीवादी विकास के चलते अस्पृश्यता लगभग समाप्तप्राय है. जातिगत आधारित पेशा भी काफी हद तक टूट चुका है. दलित आबादी का छोटा मगर एक हिस्सा उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहा है तथा नौकरशाही से लेकर संसद-विधानसभाओं तक पहुँच रहा है. लेकिन दूसरी तरफ सच्चाई यह भी है की देश भर में जातिगत शोषण-उत्पीड़न अब भी मौजूद है. पूंजीवाद अपने हितों के मद्देनज़र जाति व्यवस्था को कोऑप्ट कर चुका है. जातियों में विभाजित जनता के वर्ग चेतना के अभाव का फायदा चुनाव के समय तमाम पूँजीवादी पार्टियाँ उठाती हैं और लोगों के बीच मौजूद इस एतिहासिक विभाजन को और तीखा कर अपना उल्लू सीधा करती हैं. पूँजीवादी सत्ता शिक्षा-चिकित्सा-रोज़गार तथा अन्य बुनियादी मांगों को लेकर चलने वाले आन्दोलनों को कमज़ोर करने के लिए जाति व्यवस्था का इस्तेमाल करती है. इसलिए जाति व्यवस्था के अन्त का रास्ता पूँजीवादी व्यवस्था के अन्त का रास्ता है.

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ