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मज़दूर हितों पर बढ़ता फासीवादी हमला और मई दिवस की विरासत

 


बिगुल मज़दूर दस्ता की ओर से अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस (1 मई) पर आज अधिवक्ता सभागार, कलेक्ट्रेट कचहरी में 'मज़दूर हितों पर बढ़ता फासीवादी हमला और मई दिवस की विरासत' विषय पर गोष्ठी की गयी। गोष्ठी की शुरुआत फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म 'हम सारी दुनिया माँगेंगे' से हुयी। इसके बाद मुख्य वक्ता प्रसेन ने मौजूदा फ़ासीवादी दौर में मजदूर हितों पर हो रहे हमले के विभिन्न पहलुओं (जैसे कि मजदूरों को मिले तमाम कानूनी अधिकारों पर हमले, साम्प्रदायिक उन्माद के जरिये मज़दूर चेतना पर हमला आदि ) पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े की दर के गिरने के आम नियम और इसके प्रतिक्रियास्वरूप फ़ासीवादी राजनीति के विस्तार और आज के समय में प्रतिरोध का रास्ता क्या हो? आदि पर विस्तार से बात रखी।

प्रसेन ने बताया कि मज़दूरों ने अपने संघर्षों के दम पर जो थोड़े-बहुत अधिकार हासिल किए थे उसको 1990-91 की निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही धीरे-धीरे ख़त्म किया जा रहा था लेकिन अब मौजूदा फ़ासीवादी भाजपा सरकार श्रम क़ानूनों को पूरी तरह से रद्द कर पूँजीपतियों को श्रमशक्ति की लूट की खुली छूट देने पर आमादा हैं। इसी मकसद से 44 केंद्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार श्रम संहिता (मज़दूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता और औद्योगिक सुरक्षा और कल्याण पर श्रम संहिता) मोदी सरकार लेकर आयी है। पहली श्रम संहिता के मुताबिक पूरे देश स्तर पर दैनिक न्यूनतम मज़दूरी 178 रुपये प्रति दिन यानी सरकारी तौर पर मज़दूरों कि न्यूनतम मज़दूरी अब मनरेगा से भी कम हो गयी जो इसी सरकार की विशेषज्ञ कमेटी के सुझाओं कि धज्जियां उड़ा रही है। इसी संहिता के अन्तर्गत रोजगार श्रेणियों को ख़त्म कर दिया गया है। अब तक कुशल मज़दूरों से काम करा कर अकुशल मज़दूरों के बराबर मज़दूरी देना श्रम क़ानूनों के उलंघन के दायरे में आता था उसे अब मोदी सरकार ने हटा दिया है। इसी प्रकार यह संहिता ओवरटाइम की परिभाषा को, नयी कम्पनियों की परिभाषा को अस्पष्ट कर बोनस के प्रावधान को पूँजीपतियों किए हितों के मातहत बदला जा रहा है। इसी प्रकार व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता के तहत सुरक्षा समिति बनाए जाने के नियम को सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है जो कि पहले कारख़ाना अधिनियम, 1948 के मुताबिक अनिवार्य था।  इस पुराने क़ानून में स्पष्ट किया गया था कि मज़दूर अधिकतम कितने रासायनिक और विषैले माहौल में काम कर सकते हैं, जबकि नये कोड में रासायनिक और विषैले पदार्थों की मात्रा का साफ़-साफ़ ज़िक्र करने के बजाय उसे निर्धारित करने का काम राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ दिया गया है। मालिकों की सेवा में सरकार इस हद तक गिर गयी है कि इस कोड के मुताबिक़, अगर कोई ठेकेदार, मज़दूरों के लिए तय किये गये काम के घण्टे,वेतन और अन्य ज़रूरी सुविधाओं की शर्तें नहीं पूरी कर पाता, तो भी उस ठेकेदार को ‘कार्य-विशिष्ट’ लाइसेंस दिया जा सकता है।

सरकार तीन पुराने श्रम क़ानूनों—औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 और औद्योगिक रोज़गार अधिनियम 1946 को हटाकर उनकी जगह औद्योगिक सम्बन्ध श्रम संहिता लेकर आयी है। जिसके तहत जिन कारख़ानों में 300 तक मज़दूर हैं, उन्हें लेऑफ़ या छँटनी करने के लिए सरकार की इजाज़त लेने की अब ज़रूरत नहीं होगी (पहले यह संख्या 100 थी)। मैनेजमेण्ट को 60 दिन का नोटिस दिये बिना मज़दूर हड़ताल पर नहीं जा सकते। अगर किसी औद्योगिक न्यायाधिकरण में उनके मामले की सुनवाई हो रही है, तो फ़ैसला आने तक मज़दूर हड़ताल नहीं कर सकते। इन बदलावों का सीधा मतलब है कि कारख़ानों में हड़ताल लगभग असम्भव हो जायेगी क्योंकि अगर 300 मज़दूरों से कम हैं (जो काग़ज़ पर दिखाना बिल्कुल आसान है), तो कम्पनी हड़ताल के नोटिस की 60 दिनों की अवधि में आसानी से छँटनी करके नये लोगों की भरती कर सकती है।

अब कम्पनियों को मज़दूरों को किसी भी अवधि के लिए ठेके पर नियुक्त करने का अधिकार मिल गया है। इसे फ़िक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेण्ट का नाम दिया गया है। मतलब साफ़ है कि अब ठेका प्रथा को पूरी तरह से क़ानूनी जामा पहनाने की तैयारी हो चुकी है, यानी कि अब पूँजीपति मज़दूरों को क़ानूनी तरीके़ से 3 महीने, 6 महीने या साल भर के लिए ठेके पर रख सकता है और फिर उसके बाद उन्हें काम से बाहर निकाल सकता है।

प्रसेन ने आगे कहा कि एक तरफ फ़ासीवादी मोदी सरकार श्रम संहिताओं के जरिये मज़दूरो पर पूँजीपतियों की जकड़बन्दी को मजबूत कर रही हैं वहीं दूसरी ओर पूरे देश में संघ परिवार लगातार साम्प्रदायिक माहौल बनाकर मज़दूरों के एक अच्छे-खासे हिस्से का ध्यान पूँजीवादी लूट से भटकाकर आपस नें लड़ा रहा है। फ़ासीवाद निम्न-बुर्जुआ वर्ग का घोर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है जिसके पास एक सामाजिक आधार और जिसके काडर समाज के पोर-पोर में धँसे होते हैं। भारतीय समाज में जनवादी मूल्यों के अभाव और तथाकथित वामपंथी पार्टियों द्वारा मज़दूर वर्ग को वर्गीय चेतना से लैस करने की जगह दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई में उलझाए रखने के कुकर्मों की वजह से बिखरते मज़दूर आन्दोलन में फासिस्टों को पैर पसारने का मौका दे रहा है। और इसी का इस्तेमाल कर संघ परिवार मज़दूर आबादी को धर्म-जाति-क्षेत्र-भाषा आदि नामों पर बाँट रहा है। पराजयबोध की शिकार भारत की तथाकथित तमाम कम्युनिस्ट पार्टियां इसके जबाब में अन्य अस्मिताओं को उभारकर मज़दूरों की वर्गीय चेतना को और धूमिल कर रही हैं।

 प्रसेन ने आगे पूंजीवादी शोषण, पूंजीवादी व्यवस्था में मुनाफे के गिरने के आम नियम और इससे पैदा होने वाले पूंजीवादी संकट पर और संकट के संभावित राजनीतिक समाधान (क्रांतिकारी समाधान या फ़ासीवादी समाधान) पर विस्तार से बात रखी।

आखिर में प्रसेन ने आज की बदली हुयी परिस्थितियों में मज़दूर आन्दोलन को विकसित करने के रास्ते पर विस्तार से बात रखी। उन्होने बताया की पूंजीवादी विकास के शुरुआती दौर में बड़ी-बड़ी विशालकाय फैक्टरियों में हजारों की संख्या में मज़दूर एक साथ एक ही छत के नीचे काम करते थे, इसलिए उस वक़्त मज़दूरों को कारख़ाना आधारित यूनियन बनाकर संगठित किया जा सकता था लेकिन आज दौर बादल चुका है। आज के दौर में एक ही उत्पाद के अलग-अलग हिस्से अलग अलग कंपनियों में अपेक्षाकृत ज़्यादा मशीनीकृत तरीके से बनता है और उत्पाद की असेम्बलिंग कहीं और होती है। इस प्रकार सबसे पहले तो फैक्टरियों में मज़दूरों की संख्या बेहद कम हो गयी है, ऊपर से पीस रेट और ठेके पर काम अब आम नियम बन चुका हैं। और मशीनीकरण की वजह से अब कुशल मज़दूरों की आवश्यकता दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। जिससे मज़दूर आबादी फैक्टरियों में लगातार बदलती रहती हैं। इसलिए आज मज़दूरों को कारखानों मे संगठित कर पाना बेहद मुश्किल हो गया है। हमें मज़दूरों को पेशा आधारित यूनियन और इलाका आधारित यूनियन में संगठित करना होगा। इलाका आधारित यूनियन के माध्यम से एक तरफ मज़दूरों के तात्कालिक आर्थिक मांगों की लड़ाई संगठित की जा सकती है वहीं दूसरी तरफ़ इलाके में तमाम प्रचार की गतिविधियों को संगठित कर उनकी चेतना को भी उन्नत किया जा सकता है और साथ ही साफ-सफाई, शिक्षा-रोजगार-चिकित्सा आदि राजनीतिक मांगों के इर्द-गिर्द मज़दूरों को संगठित किया जा सकता है।

गोष्ठी की अध्यक्षता शिवनन्दन सहाय ने की। संचालन अंजलि ने किया। गोष्ठी में महेंद्र गौतम, जेएन शाह, सुभाष यादव, एमएम त्रिपाठी और प्रिंस गुप्ता आदि ने बात रखी।

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